जीवन ही है प्रभु


मैं एक छोटे से स्टेशन पर रुका हुआ था। गाड़ी चूक गया था और एक स्टेशन पर, प्लेटफार्म पर बैठा हुआ था। पास के गांव से एक बूढ़ी औरत को कुछ लोग लाये स्ट्रेचर पर, उसके सिर में पट्टियां बंधी थीं, सिर पर किसी ने चोट की थी संभवतः कुल्हाड़ी से सिर पर चोट की थी। कुछ औरतें रो रही थीं। अभी वह औरत जिंदा थी,कुछ उसके रिश्तेदार साथी वे सब थे। सब उदास थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या हुआ? तो वह औरत जो स्ट्रेचर पर पड़ी थी, आधी बेहोश सी, कुछ कभी होश आता था, कभी बेहोश थी। उसे किसी बड़े नगर में ले जाते थे वे गाड़ी में बिठाकर, किसी बड़े अस्पताल में। पास की दूसरी औरतों ने मुझसे कहा कि मत पूछिये,एक ही बेटा है इसका, और ऐसे बेटे तो पैदा होते से मर जायें तो अच्छा। क्योंकि उस बेटे ने इसको यह कुल्हाड़ियां मार दी हैं। लेकिन वह औरत एकदम से चौंक गयी, जैसे ही उन पास की स्त्रियों ने कहा--वह मरती हुई औरत--जो शायद जिंदा नहीं रहेगी, घड़ी-दो-घड़ी बाद मर जायेगी। उसका बहुत खून बह गया है और गाड़ी में देर है और पता नहीं वह बड़े अस्पताल तक पहुंचेगी कि नहीं पहुंचेगी। वह मरती हुई बूढ़ी औरत एकदम चौंक गयी, उसने आंख खोली, उसने कहा--ऐसा मत कहो। आज मेरा बेटा है, तो उसने मारा है। अगर न होता तो मारने के लिए भी तरस जाती कि कोई मारे। मेरा बेटा है तो उसने मारा। लेकिन यह मत कहो कि ऐसा बेटा पैदा होते से ही मर जाता तो अच्छा होता। अगर मेरा बेटा न होता तो कोई मारे, इसके लिए भी तरस जाती। वह एक मरती हुई मां, उसके बेटे ने उसको कुल्हाड़ी मार दी है,मारने में कोई कमी नहीं छोड़ी, लेकिन वह नहीं भूल पाती, वह नहीं भूल पाती।
ईश्वर--मैं कह रहा हूं उस चेतना के सागर को--जहां से हम आते हैं और जहां हम चले जाते हैं। जब मां नहीं भूल पाती, जिससे हमारा केवल शरीर आता है, सिर्फ शरीर आता है। ध्यान रहे,ज्यादा बहुत कुछ नहीं आता मां से। और शरीर भी बड़ी छोटी व्यवस्था में आता है। वह मां नहीं भूल पाती, क्योंकि उससे शरीर आया हमारा। लेकिन जिससे हमारा सब कुछ आया है, सारा व्यक्तित्व, उसके भूलने का सवाल नहीं है। लेकिन ध्यान रहे, इसका यह मतलब नहीं है कि वह बैठकर आपकी याद कर रहा है। क्योंकि याद हम तभी करते हैं जब हम भूल भी जाते हैं। जिसे हम भूलते नहीं, उसकी याद का सवाल ही नहीं है। आप याद में हैं ही। और जिस दिन कोई व्यक्ति परमात्मा के निकट पहुंचता है उस दिन हैरान हो जाता है कि कितनी उसने याद की, कितनी प्रतीक्षा की। वह तो द्वार पर ही बैठा था। कितनी बार उसने द्वार खटखटाये; कितनी बार पुकारा कि खोलो,खोलो; लेकिन हम व्यस्त थे अपने कामों में। यह भी हो सकता है कि हम पूजा में व्यस्त रहे हों; कि हम अपनी घंटी हिला रहे हों, कि अपने भगवान के समाने आरती चला रहे हों और हमने सोचा हो, यह कौन बाधा दे रहा है दरवाजे पर? हवाएं दरवाजे पर धक्का दे रही हैं और हवाएं उसके हाथ हैं और हम अपने बनाये भगवान के सामने पूजा कर रहे हैं। वह जो द्वार पर दस्तक दे रहा है जीवन की, थकता नहीं है,दिये जाता है दस्तक, उसे हम कैसे याद कर सकते हैं।
ओशो

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