प्रेम रंग - रस ओढ़ चदरिया
कहानी तुमने सुनी है मजनूं की? मजनूं का यह सतत चिल्लाना लैला-लैला! गली-गली, गांव के कूचे-कूचे में चिल्लाना . . .। लैला प्रतिष्ठित परिवार की लड़की थी। बाप बहुत नाराज था। मजनूं की आवारागर्दी, उसकी ये आवाजें बाप के लिए भारी पड़ने लगीं। बाप ने तय किया कि गांव ही छोड़ देंगे। उसने यह गांव ही छोड़ दिया। चले! बड़ा सम्पत्तिवाला था, बड़ी धन-दौलत थी। सब लादे गए ऊंटों पर। अनेक ऊंटों का काफिला चला। लैला को भी ऊंट पर बांध दिया गया। मजनूं को खबर मिली, वह गांव के बाहर जाकर एक वृक्ष के नीचे खड़ा हो गया और वहीं धुन सतत लग गई ः लैला-लैला। काफिला गुजरता रहा, लैला को धुन सुनाई पड़ती रही, लैला की आंखों से आंसू टपकते रहे लेकिन कोई उपाय न था। काफिला दूर होता गया, मजनूं की आवाज जोर से होने लगी। काफिला दूर होता गया, मजनूं चिल्लाता रहा, चिल्लाता रहा, चिल्लाता रहा। कहानी बड़ी प्रीतिकर है।
ध्यान रखना, लैला-मजनूं की कहानी एक सूफी कहानी है। इसका संबंध साधारण प्रेम की दुनिया से नहीं है। लैला परमात्मा का प्रतीक है, मजनूं भक्त का प्रतीक है। यह एक सूफी आख्यान है। मजनूं खड़ा ही रहा उसी वृक्ष के नीचे, उसी वृक्ष से टिका। दिन आए-गए, रातें आईं-गईं, चांद निकले-डूबे, सूरज उगे-डूबे, वर्षा आई, गर्मी आई, सब ऋतुएं आईं, न मालूम कितना समय गुजरा, मगर वह चिल्लाता ही रहा ः "लैला-लैला!' जब तक धुन रही, जब तक वाणी में शक्ति रही, जब तक श्वास रही, चिल्लाता रहा, चिल्लाता रहा।
बारह वर्ष बीत गए तब लैला वापिस लौटी। उसने गांव में पता लगाया कि मजनूं कहां है। लोगों ने कहा कि मजनूं तो अब नहीं है सिर्फ मजनूं की आवाज है। और वह भी रात के सन्नाटे में अगर गांव के फलां-फलां वृक्ष के नीचे जाकर खड़ी रहो तो सन्नाटे में रात के आवाज आती है ः "लैला-लैला-लैला'। मजनूं का तो कुछ पता नहीं है लेकिन आवाज आती है। शायद मजनूं भूत हो गया या क्या हो गया! हम तो जाने से डरते हैं। उस रास्ते से रात लोग गुजरते भी नहीं क्योंकि आवाज बड़े जोर से आती है। लैला गई उस वृक्ष के नीचे, आवाज आ रही थी। दूसरों को रात के सन्नाटे में सुनाई पड़ती होगी क्योंकि दूसरों के सिर में हजार तरह का शोरगुल है, मगर लैला को तो दिन में ही सुनाई पड़ने लगी। जैसे ही वृक्ष के पास पहुंची, सुनाई पड़ने लगी। वही आवाज! वही बारह साल जैसे बीच से मिट गए। और जब वह वृक्ष के पास गई तो चकित हो गई। मजनूं था, मर नहीं गया था लेकिन बारह साल वृक्ष के साथ खड़ा-खड़ा वृक्ष से जुड़ गया था। उसके हाथ वृक्ष की शाखाएं हो गए थे। उसके शरीर पर पत्ते निकल आए थे, फूल निकल आए थे। अब वृक्ष का ही हिस्सा था और सारे वृक्ष से एक ही धुन निकल रही थी ः लैला-लैला। यह प्रीतिकर कथा है, यह भक्त की कथा है।
रस-मतवाले रस-मसे, यहि लागी लगन गंभीर हो
सखि, इस्क पिया के आसिकां, तजि दुनिया दौलत भीर हो
छोड़ो दुनिया की भीड़-भाड़। वहां कोई मिलेगा नहीं। वहां कोई संगी-साथी न मिलेगा। संगी-साथी तुम्हारे भीतर है उसे पुकारो।
💕💕 प्रेम रंग - रस ओढ़ चदरिया ( दुलन ) # 3
ध्यान रखना, लैला-मजनूं की कहानी एक सूफी कहानी है। इसका संबंध साधारण प्रेम की दुनिया से नहीं है। लैला परमात्मा का प्रतीक है, मजनूं भक्त का प्रतीक है। यह एक सूफी आख्यान है। मजनूं खड़ा ही रहा उसी वृक्ष के नीचे, उसी वृक्ष से टिका। दिन आए-गए, रातें आईं-गईं, चांद निकले-डूबे, सूरज उगे-डूबे, वर्षा आई, गर्मी आई, सब ऋतुएं आईं, न मालूम कितना समय गुजरा, मगर वह चिल्लाता ही रहा ः "लैला-लैला!' जब तक धुन रही, जब तक वाणी में शक्ति रही, जब तक श्वास रही, चिल्लाता रहा, चिल्लाता रहा।
बारह वर्ष बीत गए तब लैला वापिस लौटी। उसने गांव में पता लगाया कि मजनूं कहां है। लोगों ने कहा कि मजनूं तो अब नहीं है सिर्फ मजनूं की आवाज है। और वह भी रात के सन्नाटे में अगर गांव के फलां-फलां वृक्ष के नीचे जाकर खड़ी रहो तो सन्नाटे में रात के आवाज आती है ः "लैला-लैला-लैला'। मजनूं का तो कुछ पता नहीं है लेकिन आवाज आती है। शायद मजनूं भूत हो गया या क्या हो गया! हम तो जाने से डरते हैं। उस रास्ते से रात लोग गुजरते भी नहीं क्योंकि आवाज बड़े जोर से आती है। लैला गई उस वृक्ष के नीचे, आवाज आ रही थी। दूसरों को रात के सन्नाटे में सुनाई पड़ती होगी क्योंकि दूसरों के सिर में हजार तरह का शोरगुल है, मगर लैला को तो दिन में ही सुनाई पड़ने लगी। जैसे ही वृक्ष के पास पहुंची, सुनाई पड़ने लगी। वही आवाज! वही बारह साल जैसे बीच से मिट गए। और जब वह वृक्ष के पास गई तो चकित हो गई। मजनूं था, मर नहीं गया था लेकिन बारह साल वृक्ष के साथ खड़ा-खड़ा वृक्ष से जुड़ गया था। उसके हाथ वृक्ष की शाखाएं हो गए थे। उसके शरीर पर पत्ते निकल आए थे, फूल निकल आए थे। अब वृक्ष का ही हिस्सा था और सारे वृक्ष से एक ही धुन निकल रही थी ः लैला-लैला। यह प्रीतिकर कथा है, यह भक्त की कथा है।
रस-मतवाले रस-मसे, यहि लागी लगन गंभीर हो
सखि, इस्क पिया के आसिकां, तजि दुनिया दौलत भीर हो
छोड़ो दुनिया की भीड़-भाड़। वहां कोई मिलेगा नहीं। वहां कोई संगी-साथी न मिलेगा। संगी-साथी तुम्हारे भीतर है उसे पुकारो।
💕💕 प्रेम रंग - रस ओढ़ चदरिया ( दुलन ) # 3
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